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अनामिका कविता-संग्रह

अनब्याही औरतें / अनामिका

 "माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की, माई री!"
जब भी सुनती हूँ मैं गीत, आपका मीरा बाई,
सोच में पड़ जाती हूँ, वो क्या था
जो माँ से भी आपको कहते नहीं बनता था,

हालांकि संबोधन गीतों का
अकसर वह होती थीं!

वर्किंग विमेन्स हॉस्टल में पिछवाड़े का ढाबा!
दस बरस का छोटू प्यालियाँ धोता-चमकाता
क्या सोचकर अपने उस खटारा टेप पर
बार-बार ये ही वाला गीत आपका बजाता है!

लक्षण तो हैं उसमें
क्या वह भी मनमोहन पुरुष बनेगा,
किसी नन्ही-सी मीरा का मनचीता.
अड़ियल नहीं, ज़रा मीठा!

वर्किंग विमेन्स हॉस्टल की हम सब औरतें
ढूँढती ही रह गईं कोई ऐसा
जिन्हें देख मन में जगे प्रेम का हौसला!

लोग मिले - पर कैसे-कैसे -
ज्ञानी नहीं, पंडिताऊ,
वफ़ादार नहीं, दुमहिलाऊ,
साहसी नहीं, केवल झगड़ालू,
दृढ़ प्रतिज्ञ कहाँ, सिर्फ जिद्दी,
प्रभावी नहीं, सिर्फ हावी,
दोस्त नहीं, मालिक,
सामजिक नहीं, सिर्फ एकांत भीरु
धार्मिक नहीं, केवल कट्टर


कटकटाकर हरदम पड़ते रहे वे
अपने प्रतिपक्षियों पर -
प्रतिपक्षी जो आखिर पक्षी ही थे,
उनसे ही थे.
उनके नुचे हुए पंख
और चोंच घायल!

ऐसों से क्या खाकर हम करते हैं प्यार!
सो अपनी वरमाला
अपनी ही चोटी में गूंथी
और कहा खुद से -
"एकोहऽम बहुस्याम"

वो देखो वो -
प्याले धोता नन्हा घनश्याम!
आत्मा की कोख भी एक होती है, है न!
तो धारण करते हैं
इस नयी सृष्टि की हम कल्पना

जहाँ ज्ञान संज्ञान भी हुआ करे,
साहस सद्भावना!

अयाचित /अनामिका

 मेरे भंडार में
एक बोरा ‘अगला जनम’
‘पिछला जनम’ सात कार्टन
रख गई थी मेरी माँ।

चूहे बहुत चटोरे थे
घुनों को पता ही नहीं था
कुनबा सीमित रखने का नुस्खा
... सो, सबों ने मिल-बाँटकर
मेरा भविष्य तीन चौथाई
और अतीत आधा
मज़े से हज़म कर लिया।

बाक़ी जो बचा
उसे बीन-फटककर मैंने
सब उधार चुकता किया
हारी-बीमारी निकाली
लेन-देन निबटा दिया।

अब मेरे पास भला क्या है
अगर तुम्हें ऐसा लगता है
कुछ है जो मेरी इन हड्डियों में है अब तक
मसलन कि आग
तो आओ
अपनी लुकाठी सुलगाओ।

आधा अंधेरा है, आधा उजाला है / अनामिका

 एक लोरी गीत: गर्भस्थ शिशु के लिए

आधा अंधेरा है, आधा उजाला है
इस प्रसन्न बेला में
रह-रहकर उठती है
एक हरी मितली-सी,
रक्त के समंदर से लाना है अमृतकलश!
मेरी इन सांसों से
कांप-कांप उठते हैं जंगल,
दो-दो दिल धड़क रहे हैं मुझमें
चार-चार होंठों से पी रही हूं मैं समंदर!
चूस रही हूं एक मीठी बसंती बयार
चार-चार होंठों से!
चार-चार आंखों से कर रही हूं आंखें चार मैं
महाकाल से!
थरथरा उठे हैं मेरे आवेग से सब परबत
ठेल दिया है अपने पैरों से
एक तरफ मैंने उन्हें!
यह प्रसव-बेला है, सोना मत,
इंद्रधनुष के सात रंगों से
है यह बिछौना सौना-मौना।
जनम रहा है जैसे मेरे पातालों से
एक नया आसमान!
अभी सोना मत!
बस, बेटी बस, थोड़ी देर सबर!
फिर मैं निंदिया के महाजल में
डुबकियां लगा दूंगी तुझको खुद,
दुधुवा पिलाके सुला दूंगी तुझको खुद!
जनमतुआ चानी पर छपकूंगी
अंजुरी-भर तेल!
गुजुर-गुजुर आंखों में आंजूंगी
दुनिया के सारे अंधेरे!
लोरी गाएंगी दिशाएं तब-
‘आरे आव, पारे आव
नदिया किनारे आव,
सोने के कटोरिया में
दूध-भात ले ले आव।
बबुआ के मुंहवा में घुटूक!’

आम्रपाली /अनामिका

 था आम्रपाली का घर
मेरी ननिहाल के उत्तर !
आज भी हर पूनो की रात
खाली कटोरा लिए हाथ
गुज़रती है वैशाली के खण्डहरों से
बौद्धभिक्षुणी आम्रपाली ।

अगल-बगल नहीं देखती,
चलती है सीधी मानो ख़ुद से बातें करती
शरदकाल में जैसे
(कमण्डल-वमण्डल बनाने की ख़ातिर)
पकने को छोड़ दी जाती है
लतर में ही लौकी
पक रही है मेरी हर मांसपेशी,
खदर-बदर है मेरे भीतर का
हहाता हुआ सत !

सूखती-टटाती हुई
हड्डियाँ मेरी
मरे कबूतर-जैसी
इधर-उधर फेंकी हुई मुझमें
सोचती हूँ क्या वो मैं ही थी
नगरवधू-बज्जिसँघ के बाहर के लोग भी जिसकी
एक झलक को तरसते थे ?
ये मेरे सन-से सफ़ेद बाल
थे कभी भौंरे के रँग के कहते हैं लोग,
नीलमणि थीं मेरी आँखें
बेले के फूलों-सी झक सफ़ेद दन्तपँक्ति :
खण्डहर का अर्द्धध्वस्त दरवाज़ा हैं अब जो !
जीवन मेरा बदला, बुद्ध मिले,
बुद्ध को घर न्योतकर
अपने रथ से जब मैं लौट रही थी

कुछ तरुण लिच्छवी कुमारों के रथ से
टकरा गया मेरे रथ का
धुर से धुर, चक्के से चक्का, जुए से जुआ !
लिच्छवी कुमारों को ये अच्छा कैसे लगता,
बोले वे चीख़कर —
“जे आम्रपाली, क्यों तरुण लिच्छवी कुमारों के धुर से
धुर अपना टकराती है ?”

“आर्यपुत्रो, क्योंकि भिक्खुसंघ के साथ
भगवान बुद्ध ने भात के लिए मेरा निमन्त्रण किया है स्वीकार !”
“जे आम्रपाली !
सौ हजार ले और इस भात का निमन्त्रण हमें दे !”
“आयपुत्रो, यदि तुम पूरा वैशाली गणराज्य भी दोगे,
मैं यह महान भात तुम्हें नहीं देने वाली !”
मेरा यह उत्तर सुन वे लिच्छवी कुमार
चटकाने लगे उँगलियाँ :
‘हाय, हम आम्रपाली से परास्त हुए तो अब चलो,
बुद्ध को जीतें !’
कोटिग्राम पहुँचे, की बुद्ध की प्रदक्षिणा,
उन्हें घर न्योता,
पर बुद्ध ने मान मेरा ही रखा
और कहा ‘रह जाएगी करुणा, रह जाएगी मैत्री,
बाक़ी सब ठह जाएगा...’
“तो बहा काल-नद में मेरा वैभव...
राख की इच्छामती,
राख की गँगा,
राख की कृष्णा-कावेरी,
गरम राख़ की ढेरी
यह काया
बहती रही
सदियों
इस तट से उस तट तक !
टिमकता रहा एक अँगारा,
तिरता रहा राख़ की इस नदी पर
बना-ठना

ठना-बना
तैरा लगातार !

तैरी सोने की तरी !
राख़ की इच्छामती !
राख़ की गंगा !
राख़ की कृष्णा-कावेरी ।

झुर्रियों की पोटली में
बीज थोड़े-से सुरक्षित हैं
वो ही मैं डालती जाती हूँ
अब इधर-उधर !
गिर जाते हैं थोड़े-से बीज पत्थर पर,
चिड़िया का चुग्गा बन जाते हैं वे,
बाक़ी खिल जाते हैं जिधर-तिधर
चुटकी-भर हरियाली बनकर ।”

सुनती हूँ मैं गौर से आम्रपाली की बातें
सोचती हूँ कि कमण्डल या लौकी या बीजकोष
जो भी बने जीवन, जीवन तो जीवन है !
हरियाली ही बीज का सपना,
रस ही रसायन है !

कमण्डल-वमण्डल बनाने की ख़ातिर
शरदकाल में जैसे पकने को छोड़ दी जाती है
लतर में ही लौकी
पक रही है मेरी हर मांसपेशी तो पकने दो, उससे क्या ?
कितनी तो सुन्दर है
हर रूप में दुनिया !

उम्रक़ैद /अनामिका

 किए-अनकिए सारे अपराधों की लय पर
झन-झन-झन
बजाते हुए अपनी ज़ँजीरें
गाते हैं खुसरो

रात के चौथे पहर
जब ओस झड़ती है
आसमान की आँखों से
और कटहली चम्पा
कसमसाकर फूल जाती है
भींगती मसों में सुबह की ।

अपनी ही गन्ध से मताकर
फूल-सा चटक जाने का
सिलसिला
एक सूफ़ी सिलसिला है,
किबला,
एक जेल है ये ख़ुदी,
ख़ुद से निकल जाना बाहर,
और देखना पीछे मुड़कर
एक सूफ़ी सिलसिला है यही !

एक औरत का पहला राजकीय प्रवास /अनामिका

 वह होटल के कमरे में दाख़िल हुई!
अपने अकेलेपन से उसने
बड़ी गर्मजोशी से हाथ मिलाया।

कमरे में अंधेरा था।
घुप्प अंधेरा था कुएँ का
उसके भीतर भी!

सारी दीवारें टटोली अंधेरे में,
लेकिन ‘स्विच’ कहीं नहीं था!
पूरा खुला था दरवाज़ा,
बरामदे की रोशनी से ही काम चल रहा था!
सामने से गुज़रा जो ‘बेयरा’ तो
आर्त्तभाव से उसे देखा!
उसने उलझन समझी, और
बाहर खड़े-ही-खड़े
दरवाज़ा बंद कर दिया!

जैसे ही दरवाज़ा बंद हुआ,
बल्बों में रोशनी के खिल गए सहस्रदल कमल!
“भला बंद होने से रोशनी का क्या है रिश्ता?”
उसने सोचा।

डनलप पर लेटी,
चटाई चुभी घर की, अंदर कहीं–रीढ़ के भीतर!
तो क्या एक राजकुमारी ही होती है हर औरत?
सात गलीचों के भीतर भी
उसको चुभ जाता है
कोई मटरदाना आदिम स्मृतियों का?

पढ़ने को बहुत-कुछ धरा था,
पर उसने बाँची टेलीफ़ोन तालिका
और जानना चाहा
अंतरराष्ट्रीय दूरभाष का ठीक-ठीक ख़र्चा।

फिर, अपनी सब डॉलरें ख़र्च करके
उसने किए तीन अलग-अलग कॉल!

सबसे पहले अपने बच्चे से कहा
“हैलो-हैलो, बेटे
पैकिंग के वक्त... सूटकेस में ही तुम ऊँघ गए थे कैसे...
सबसे ज़्यादा याद आ रही है तुम्हारी
तुम हो मेरे सबसे प्यारे!”

अंतिम दोनों पंक्तियाँ अलग-अलग उसने कहीं
आफ़िस में खिन्न बैठे अंट-शंट सोचते अपने प्रिय से
फिर, चौके में चिंतित, बर्तन खटकाती अपनी माँ से।

... अब उसकी हुई गिरफ़्तारी।
पेशी हुई ख़ुदा के सामने
कि इसी एक ज़ुबाँ से उसने
तीन-तीन लोगों से कैसे यह कहा
“सबसे ज़्यादा तुम हो प्यारे !”
यह तो सरासर है धोखा
सबसे ज़्यादा माने सबसे ज़्यादा!

लेकिन, ख़ुदा ने कलम रख दी
और कहा–
“औरत है, उसने यह ग़लत नहीं कहा!”

- कविता स्त्री विमर्श

एक नन्ही-सी धोबिन (चिरैया) / अनामिका

 (गुरू धोबी सिख कापरा, साबुन सिरजनहार)


दुनिया के तुडे-मुडे सपनों पर, देखो-
कैसे वह चला रही है
लाल, गरम इस्तिरी!
जब इस शहर में नई आई थी-
लगता था, ढूंढ रही है भाषा ऐसी
जिससे मिट जाएँगी सब सलवटें दुनिया की!
ठेले पर लिए आयरन घूमा करती थी
चुपचाप
सारे मुहल्ले में।
आती वह चार बजे
जब सूरज
हाथ बाँधकर
टेक लेता सर
अपनी जंगाई हुई सी
उस रिवॉल्विंग कुर्सी पर
और धूप लगने लगती
एक इत्ता-सा फुँदना-
लडकी की लम्बी परांदी का।
कई बरस
हमारी भाषा के मलबे में ढूंढा-
उसके मतलब का
कोई शब्द नहीं मिला।
चुपचाप सोचती रही देर तक,
लगा उसे-
इस्तिरी का यह
अध सुलगा कोयला ही हो शायद
शब्द उसके काम का!
जिसको वह नील में डुबाकर लिखती है
नम्बर कपडों के
वही फिटकिरी उसकी भाषा का नमक बनी।
लेकर उजास और खुशबू
मुल्तानी मिट्टी और साबुन की बट्टी से,
मजबूती पारे से
धार और विस्तार
अलगनी से
उसने
एक नई भाषा गढी।
धो रही है
देखो कैसे लगन और जतन से
दुनिया के सब दाग-धब्बे।
इसके उस ठेले पर
पडी हुई गठरी है
पृथ्वी।

श्रेणी: कविता

ओढ़नी / अनामिका

 मैट्रिक के इम्तिहान के बाद
सीखी थी दुल्हन ने फुलकारी !
दहेज की चादरों पर
माँ ने कढ़वाये थे
तरह-तरह के बेल-बूटे,
तकिए के खोलों पर 'गुडलक' कढ़वाया था !
कौन माँ नहीं जानती, जी, ज़रूरत
दुनिया में 'गुडलक' की !

और उसके बाद?
एक था राजा, एक थी रानी
और एक थी ओढ़नी-
लाल ओढ़नी फूलदार!

और उसके बाद?
एक था राजा, एक थी रानी
और एक ख़तम कहानी !
दुल्हन की कटी-फटी पेशानी
और ओढ़नी ख़ूनम-ख़ून !

अपने वजूद की माटी से
धोती थी रोज इसे दुल्हन
और गोदी में बिछा कर सुखाती थी
सोचती सी यह चुपचाप-
तार-तार इस ओढ़नी से
क्या वह कभी पोंछ पाएगी
खूंखार चेहरों की खूंखारिता
और मैल दिलों का?

घर का न घाट का-
उसका दुपट्टा
लहराता था आसमानों पर-
'गगन में गैब निसान उडै़' की धुन पर-
आहिस्ता-आहिस्ता !

श्रेणी: कविता

कुछ तो / अनामिका

 कुछ तो हो!
कोई पत्ता तो कहीं डोले
कोई तो बात होनी चाहिए अब जिन्दगी में
बोलने मैं समझने - जैसी कोई बात ,
चलने में पहुँचने - जैसी
करने में हो जाने - जैसी कोई तरंग

या मौला, क्या हो रहा है यह
ओंठ चल रहे हैं लगातार
शब्द से अर्थ खेलते हैं कुट्टी-कुट्टी
पर बात कहीं भी नहीं पहुँच पाती.

जो देखो वो है सवार
कोई किसी के कंधे पर
कोई ऐन आपके ही सिर
सब हैं सवार
सब जा रहे हैं कहीं न कहीं
कहीं बिना पहुंचे हुए!

जैसे कि ज़ार निकोलाई ने
ज़ारी किया हो कोई फरमान.

जो भी किसान दे नहीं पाए हैं लगान
जाएँ वहां न जाने कहाँ
लायें उसे न जाने किसे.

क्या लाने निकले थे घर से हम भूल गए
कुट्टी-कुट्टी खेलते से मिले हमको
मिट्टी से पेटेंटिड बीज!
वहीँ कहीं मिट्टी में
मिट्टी-मिट्टी से हुए सब अरमान

होरियों ने गोदान के पहले
कर दिया आत्मदान
आत्महत्या एक हत्या ही थी
धारावाहिक!
सुदूर पश्चिम से चल रहे थे अग्नि बाण :
ईश्वर-से अदृश्य
हर जगह है ट्रैफिक जैम
सड़कों से टूट गया है
अपने सारे ठिकानों का वास्ता.

सदियों से बिलकुल खराब पड़े
घर के बुज़ुर्ग लैंडलाइन की तरह
हम भी दे देते हैं गलत-सलत सिग्नल

कोई भी नंबर लगाए
कहीं दूर से
तो आते हैं हमसे
सर्वदा ही व्यस्त होने के
कातर और झूठे संदेशे!

काहे की व्यस्तता!
कुछ तो नहीं होता
पर रिसीवर ऑफ हो
या कि टूट गया हो बिज़ी कनेक्शन
सार्वजानिक बक्से से
तो ऐसा होता है, है न -
लगातार आते हैं व्यस्त होने के गलत सिग्नल

कुछ तो हो!
कोई पत्ता तो कहीं डोले!
कोई तो बात होनी चाहिए जिन्दगी में अब!
बोलने में समझने- जैसे कोई बात!
चलने में पहुँचने- जैसी
करने में कुछ हो जाने -जैसी तरंग!

श्रेणी: कविता

कूड़ा बीनते बच्चे / अनामिका

 उन्हें हमेशा जल्दी रहती है
उनके पेट में चूहे कूदते हैं
और खून में दौड़ती है गिलहरी!
बड़े-बड़े डग भरते
चलते हैं वे तो
उनका ढीला-ढाला कुर्ता
तन जाता है फूलकर उनके पीछे
जैसे कि हो पाल कश्ती का!
बोरियों में टनन-टनन गाती हुई
रम की बोतलें
उनकी झुकी पीठ की रीढ़ से
कभी-कभी कहती हैं-
"कैसी हो","कैसा है मंडी का हाल?"
बढ़ते-बढ़ते
चले जाते हैं वे
पाताल तक
और वहाँ लग्गी लगाकर
बैंगन तोड़ने वाले
बौनों के वास्ते
बना देते हैं
माचिस के खाली डिब्बों के
छोटे-छोटे कई घर
खुद तो वे कहीं नहीं रहते,
पर उन्हें पता है घर का मतलब!
वे देखते हैं कि अकसर
चींते भी कूड़े के ठोंगों से पेड़ा खुरचकर
ले जाते हैं अपने घर!
ईश्वर अपना चश्मा पोंछता है
सिगरेट की पन्नी उनसे ही लेकर।

श्रेणी: कविता
अनामिका
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