उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ / अमीर मीनाई ग़ज़ल
उस की हसरत[1] है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ
ढूँढने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ
डाल कर ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा
कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी के मिटा भी न सकूँ
ज़ब्त[2] कमबख़्त ने और आ के गला घोंटा है
के उसे हाल सुनाऊँ तो सुना भी न सकूँ
उस के पहलू[3]में जो ले जा के सुला दूँ दिल को
नींद ऐसी उसे आए के जगा भी न सकूँ
नक्श-ऐ-पा देख तो लूँ लाख करूँगा सजदे
सर मेरा अर्श[4] नहीं है कि झुका भी न सकूँ
बेवफ़ा लिखते हैं वो अपनी कलम से मुझ को
ये वो किस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ
इस तरह सोये हैं सर रख के मेरे जानों पर
अपनी सोई हुई किस्मत को जगा भी न सकूँ
शब्दार्थ
1 इच्छा-desire
2 सहनशीलता-Forbearance
3गोद-Lap
4 आसमान
श्रेणी: ग़ज़ल
तुन्द मै और ऐसे कमसिन के लिये / अमीर मीनाई ग़ज़ल
तुन्द मय और ऐसे कमसिन के लिये
साक़िया हल्की-सी ला इन के लिये
मुझ से रुख़्सत हो मेरा अहद-ए-शबाब
या ख़ुदा रखना न उस दिन के लिये
है जवानी ख़ुद जवानी का सिंगार
सादगी गहना है इस सिन के लिये
सब हसीं हैं ज़ाहिदों को नापसन्द
अब कोई हूर आयेगी इन के लिये
वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर
दिन गिने जाते थे इस दिन के लिये
सारी दुनिया के हैं वो मेरे सिवा
मैंने दुनिया छोड़ दी जिन के लिये
लाश पर इबरत ये कहती है 'अमीर'
आये थे दुनिया में इस दिन के लिये
श्रेणी: ग़ज़ल
सरकती जाये है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता-आहिस्ता / अमीर मीनाई ग़ज़ल
सरकती जाये है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता-आहिस्ता
निकलता आ रहा है आफ़ताब आहिस्ता-आहिस्ता
जवाँ होने लगे जब वो तो हम से कर लिया पर्दा
हया यकलख़त आई और शबाब आहिस्ता-आहिस्ता
शब-ए-फ़ुर्कत का जागा हूँ फ़रिश्तों अब तो सोने दो
कभी फ़ुर्सत में कर लेना हिसाब आहिस्ता-आहिस्ता
सवाल-ए-वस्ल पर उन को अदू का ख़ौफ़ है इतना
दबे होंठों से देते हैं जवाब आहिस्ता आहिस्ता
हमारे और तुम्हारे प्यार में बस फ़र्क़ है इतना
इधर तो जल्दी जल्दी है उधर आहिस्ता आहिस्ता
वो बेदर्दी से सर काटे 'अमीर' और मैं कहूँ उन से
हुज़ूर आहिस्ता-आहिस्ता जनाब आहिस्ता-आहिस्ता
श्रेणी: ग़ज़ल
कह रही है हश्र में वो आँख शर्माई हुई / अमीर मीनाई
कह रही है हश्र में वो आँख शर्माई हुई
हाय कैसे इस भरी महफ़िल में रुसवाई हुई
आईने में हर अदा को देख कर कहते हैं वो
आज देखा चाहिये किस किस की है आई हुई
कह तो ऐ गुलचीं असीरान-ए-क़फ़स के वास्ते
तोड़ लूँ दो चार कलियाँ मैं भी मुर्झाई हुई
मैं तो राज़-ए-दिल छुपाऊँ पर छिपा रहने भी दे
जान की दुश्मन ये ज़ालिम आँख ललचाई हुई
ग़म्ज़ा-ओ-नाज़-ओ-अदा सब में हया का है लगाव
हाए रे बचपन की शोख़ी भी है शर्माई हुई
वस्ल में ख़ाली रक़ीबों से हुई महफ़िल तो क्या
शर्म भी जाये तो जानूँ के तन्हाई हुई
गर्द उड़ी आशिक़ की तुर्बत से तो झुँझला के कहा
वाह सर चढ़ने लगी पाँओं की ठुकराई हुई
श्रेणी: ग़ज़ल
जब से बुलबुल तूने दो तिनके लिये / अमीर मीनाई ग़ज़ल
जब से बुलबुल तूने दो तिनके लिये
टूटती है बिजलियाँ इनके लिये
है जवानी ख़ुद जवानी का सिंगार
सादगी गहना है उस सिन के लिये
कौन वीराने में देखेगा बहार
फूल जंगल में खिले किनके लिये
सारी दुनिया के हैं वो मेरे सिवा
मैंने दुनिया छोड़ दी जिन के लिये
बाग़बाँ कलियाँ हों हल्के रंग की
भेजनी हैं एक कमसिन के लिये
सब हसीं हैं ज़ाहिदों को नापसन्द
अब कोई हूर आयेगी इनके लिये
वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर
दिन गिने जाते थे इस दिन के लिये
श्रेणी: ग़ज़ल
इश्क़ में जाँ से गुज़रते हैं गुज़रने वाले / अमीर मीनाई ग़ज़ल
इश्क़ में जाँ से गुज़रते हैं गुज़रने वाले
मौत की राह नहीं देखते मरने वाले
आख़िरी वक़्त भी पूरा न किया वादा-ए-वस्ल
आप आते ही रहे मर गये मरने वाले
उठ्ठे और कूच-ए-महबूब में पहुँचे आशिक़
ये मुसाफ़िर नहीं रस्ते में ठहरने वाले
जान देने का कहा मैंने तो हँसकर बोले
तुम सलामत रहो हर रोज़ के मरने वाले
आस्माँ पे जो सितारे नज़र आये 'आमीर'
याद आये मुझे दाग़ अपने उभरने वाले
श्रेणी: ग़ज़ल
हँस के फ़रमाते हैं वो देख कर हालत मेरी / अमीर मीनाई
हँस के फ़रमाते हैं वो देख कर हालत मेरी
क्यों तुम आसान समझते थे मुहब्बत मेरी
बाद मरने के भी छोड़ी न रफ़ाक़त मेरी
मेरी तुर्बत से लगी बैठी है हसरत मेरी
मैंने आग़ोश-ए-तसव्वुर में भी खेंचा तो कहा
पिस गई पिस गई बेदर्द नज़ाकत मेरी
आईना सुबह-ए-शब-ए-वस्ल जो देखा तो कहा
देख ज़ालिम ये थी शाम को सूरत मेरी
यार पहलू में है तन्हाई है कह दो निकले
आज क्यों दिल में छुपी बैठी है हसरत मेरी
हुस्न और इश्क़ हमआग़ोश नज़र आ जाते
तेरी तस्वीर में खिंच जाती जो हैरत मेरी
किस ढिटाई से वो दिल छीन के कहते हैं 'अमीर'
वो मेरा घर है रहे जिस में मुहब्बत मेरी
श्रेणी: ग़ज़ल
बन्दा नवाज़ियों पे खु़दा-ए-करीम था / अमीर मीनाई
बन्दा-नवाज़ियों पे ख़ुदा-ए-करीम था
करता न मैं गुनाह तो गुनाह-ए-अज़ीम था
बातें भी की ख़ुदा ने दिखाया जमाल भी
वल्लाह क्या नसीब जनाब-ए-कलीम था
दुनिया का हाल अहल-ए-अदम है ये मुख़्तसर
इक दो क़दम का कूच-ए-उम्मीद-ओ-बीम था
करता मैं दर्दमन्द तबीबों से क्या रजू
जिस ने दिया था दर्द बड़ा वो हक़ीम था
समाँ-ए-उफ़्व क्या मैं कहूँ मुख़्तसर है ये
बन्दा गुनाहगार था ख़ालिक़ करीम था
जिस दिन से मैं चमन में हुआ ख़्वाहे-ए-गुल 'अमीर'
नाम-ए-सबा कहीं न निशान-ए-नसीम था
श्रेणी: ग़ज़ल
अच्छे ईसा हो मरीज़ों का ख़याल अच्छा है / अमीर मीनाई ग़ज़ल
अच्छे ईसा[1]हो मरीज़ों[2]का ख़याल अच्छा है
हम मरे जाते हैं तुम कहते हो हाल अच्छा है
तुझ से माँगूँ मैं तुझी को कि सब कुछ मिल जाये
सौ सवालों से यही इक सवाल अच्छा है
देख ले बुलबुल-ओ-परवाना की बेताबी को
हिज्र[3]अच्छा न हसीनों[4] का विसाल[5]अच्छा है
आ गया उस का तसव्वुर[6]तो पुकारा ये शौक़
दिल में जम जाये इलाही ये ख़याल अच्छा है
1 यहाँ उपचारक
2 रोगियों
3 विरह
4 सुंदरियों
5 मिलन
6 कल्पना, विचार,ध्यान
श्रेणी: ग़ज़ल
झोंका इधर न आये नसीम-ए-बहार का / अमीर मीनाई ग़ज़ल
झोंका इधर न आये नसीम-ए-बहार का
नाज़ुक बहुत है फूल चराग़-ए-मज़ार का
फिर बैठे-बैठे वाद-ए-वस्ल उस ने कर लिया
फिर उठ खड़ा हुआ वही रोग इन्तज़ार का
शाख़ों से बर्ग-ए-गुल नहीं झड़ते हैं बाग़ में
ज़ेवर उतार रहा है उरूस-ए-बहार का
हर गुल से लालाज़ार में ये पूछता हूँ मैं
तू ही पता बता दे दिल-ए-दाग़दार का
इस प्यार से फ़िशार दिया गोर-ए-तंग ने
याद आ गया मज़ा मुझे आग़ोश-ए-यार का
हिलती नहीं हवा से चमन में ये डालियाँ
मूँह चूमते हैं फूल उरूस-ए-बहार का
उठता है नज़अ में वो सरहाने से ऐ 'अमीर'
मिटता है आसरा दिल-ए-उम्मीदवार का
श्रेणी: ग़ज़ल
है दिल को शौक़ उस बुत-ए-क़ातिल की दीद का / अमीर मीनाई ग़ज़ल
है दिल को शौक़ उस बुत-ए-क़ातिल की दीद का
होली का रंग जिस को लहू है शहीद का
दुनिया परस्त क्या रहे उक़बा करेंगे तै
निकलेगा ख़ाक घर से क़दम ज़न मुरीद का
होने न पाए ग़ैर बग़लगीर यार से
अल्लाह यूँ ही रोज़ गुज़र जाए ईद का
सारा हिसाब ख़त्म हुआ हश्र हो चुका
पूछा गया न हाल तुम्हारे शहीद का
जा के सफ़र में भूल गए हमको वो अमीर
याँ और दोस्तों ने लिखा ख़त रसीद का
श्रेणी: ग़ज़ल
फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझको रात भर रक्खा / अमीर मीनाई ग़ज़ल
फ़िराक़-ए-यार[1]ने बेचैन मुझको रात भर रक्खा
कभी तकिया[2]इधर रक्खा, कभी तकिया उधर रक्खा
बराबर[3]आईने के भी न समझे क़द्र[4]वो दिल की
इसे ज़ेरे-क़दम[5]रक्खा उसे पेशे-नज़र[6]रक्खा
तुम्हारे संगे-दर[7]का एक टुकड़ा भी जो हाथ आया
अज़ीज़[8]ऐसा किया मर कर उसे छाती पे धर रक्खा
जिनाँ में साथ अपने क्यों न ले जाऊँ मैं नासेह[9]को
सुलूक[10]ऐसा ही मेरे साथ है हज़रत[11]ने कर रक्खा
बड़ा एहसाँ है मेरे सर पे उसकी लग़ज़िश-ए-पा[12]का
कि उसने बेतहाशा हाथ मेरे दोश[13]पर रक्खा
तेरे हर नक़्श-ए-पा[14]को रहगुज़र[15] में सजदा कर बैठे
जहाँ तूने क़दम रक्खा वहाँ हमने भी सर रक्खा
अमीर अच्छा शगून-ए-मय किया साक़ी की फ़ुरक़त[16]में
जो बरसा अब्र-ए-रहमत[17]जा-ए-मय[18]शीशे[19]में भर रक्खा
शब्दार्थ
1. ↑ प्रेमी/प्रेमिका के विछोह्
2. ↑ सिरहाना
3. ↑ समक्ष
4. ↑ महत्व
5. ↑ पाँव तले
6. ↑ आँख के सामने
7. ↑ दरवाज़े का पत्थर
8. ↑ प्रिय
9. ↑ उपदेशक
10. ↑ व्यवहार
11. ↑ महाशय
12. ↑ पैरों की लड़खड़ाहट
13. ↑ काँधे
14. ↑ पद-चिह्न
15. ↑ रास्ता
16. ↑ विछोह
17. ↑ मेहरबानी का बादल
18. ↑ शराब की जगह
19. ↑ जाम
श्रेणी: ग़ज़ल
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