Search This Blog
फूल की स्मरण-प्रतिमा / अज्ञेय
यह देने का अहंकार
छोड़ो ।
कहीं है प्यार की पहचान
तो उसे यों कहो :
'मधुर ये देखो
फूल । इसे तोड़ो;
घुमा-फिरा कर देखो,
फिर हाथ से गिर जाने दो :
हवा पर तिर जाने दो-
(हुआ करे सुनहली) धूल ।'
फूल की स्मरण-प्रतिमा ही बचती है ।
तुम नहीं, न तुम्हारा दान ।
No comments:
Post a Comment
Newer Post
Older Post
Home
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
Share this
No comments:
Post a Comment