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नाता-रिश्ता-5 / अज्ञेय

उस राख का पाथेय लेकर मैं चलता हूँ
उस मौन की भाषा में मैं गाता हूँ :
उस अलक्षित, अपरिमेय निमिष में
मैं तुम्हारे पास जाता हूँ, पर
मैं, जो होने में ही अपने को छलता हूँ--
यों अपने अनस्तित्व में तुम्हें पाता हूँ।

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